रविवार, 31 जनवरी 2021

Education System in ancient Bharat

Like the culture and traditions of India, the system of education also has a rich history of its own. Majorly influenced by the Hindu religion, the knowledge acquired by people of ancient times was passed on from one generation to another and is reflected even in the teachings of today. Here’s a brief take on what the system of education was like during the early days of the Indian civilization.In the olden days, there was no formal education in India. A father passed on knowledge, primarily related to his occupation, to his child. Much later, two systems of education emerged – Vedic and Buddhist. The Vedic system revolved around the Vedas,  Vedangas  and  Upanishads,  while the Buddhist system preached the thoughts of the major Buddhist schools. The language of education was Sanskrit for the Vedic system and Pali for the Buddhist system.

PC Google


What was unique about ancient Indian education?

Education in ancient India was quite different from the rest of the world back then. The society and state couldn’t interfere with the curriculum or the administration. To get an education, a child had to leave home and live with a teacher in a gurukul for the entire duration of his studies. No fee was charged for education; in fact, the teacher took care of everything, including food, clothing and housing. According to this system, physical labor was of utmost importance. So, even if a child was interested in acquiring philosophical knowledge, he would still have to do some manual work every day. Debates and discussions were a part of education, even in ancient days.

When could a child start acquiring education?

In the Vedic system, a child started his education at the age of five. To mark this commencement, the Vidyarambha ceremony, which included worshiping Goddess Saraswati and learning alphabets for the first time, was conducted. Leaving home and starting to live with ateacher required the child to conduct another ceremony called Upanayana. Boys practiced this ceremony at different ages according to their castes.  In the Buddhist system, a child started his education at the age of eight, with a ceremony called Pabbajja or Prabrajya. Unlike the Vedic system, this initiation ceremony could be practiced by boys of all castes. After this, the child would leave home and go to live in a monastery under the guidance of his teacher (a monk).

The education of women

Education for women was quite important in ancient India. They were trained in housekeeping, as well as in dancing and music. Girls also had to conduct the Upanayana ceremony. Educated women were divided into two classes – Sadyodwahas, those who pursued their education just until they got married, and Brahmavadinis, those who never married and continued studying throughout their lives. Vedas and Vedangas were taught to women, too, but were limited to religious songs and poems necessary for rituals. Some notable Vedic and Upanishad women scholars were Apala, Indrani, Ghosha, Lopamudra, Gargi and Maitreyi.

What were the subjects of study?

Both Vedic and Buddhist systems of education had different subjects of study. The Vedic system comprised of the four Vedas (Rig Veda, Sama Veda, Yajur Veda and Atharva Veda), six Vedangas (ritualistic knowledge, metrics, exegetics, grammar, phonetics and astronomy), the Upanishads, Tarka Shastra (logic and reasoning), Puranas (history), and more. The main subjects in the Buddhist system were the three Pitakas (Vinaya, Abhidhamma and Sutta), the most recognized works of all 18 Buddhism schools. Certain other subjects common to both the systems were arithmetic, military science, law, performing arts, ethics, and art and architecture.

The period of learning and vocational education

Mastering one Veda took 12 years. Thus, depending on how many subjects the student wanted to learn, the study period varied accordingly. The education could go on for as long as 48 years.

In order to earn a livelihood, men needed to know an art form. As per the ancient Indian education system, there were about 64 art forms, including dance, music, jewel making, sculpture, agriculture, and medical sciences. To acquire vocational training in a particular art form, men were required to work as trainees under a master to gain expertise. They were taught without any cost, and food and boarding were also taken care of by the master.

Methods of teaching

Though teaching in groups was common back then, students were also taught individually by their teachers based on their capabilities and aptitudes. Oral recitation was the basic medium of imparting knowledge and was practiced through various methods like introspection (listening, contemplation and concentrated contemplation), storytelling, memorization, critical analysis, practical study and seminars.

Ancient educational institutions

Just as we have world renowned universities today, there were popular educational institutions here during the ancient times as well. Four of these institutions were quite prominent and known for different specializations. The University of Nalanda was famous for its Catholic and cosmopolitan character and its department of logic. Takshasila University, in an area what is now modern-day Pakistan, was well-known across the world for its medical school and was the chief learning centre in 6th century BC. What Nalanda University was to east India, Vallabhi was to west India. It was also a famous study center that specialized in subjects like law, medicine and economics, and had students attending from all parts of the country. Vikramshila was yet another esteemed institution, best known for Tantric Buddhism.

सोमवार, 11 जनवरी 2021

महाभारत की 25 महत्वपूर्ण शिक्षा जो जीवन बदल सकती है

महाभारत की शिक्षा हर काल में प्रासंगिक रही है। महाभारत को पढ़ने के बाद इससे हमें जो शिक्षा या सबक मिलता है, उसे याद रखना भी जरूरी है। तो आओ हम जानते हैं ऐसी ही 25 तरह की शिक्षाएं, जो हमें महाभारत, युगंधर और मृत्युंजन पढ़ने पर मिलती हैं। हालांकि यह भी सच है कि आप महाभारत पढ़ेंगे तो हो सकता है कि आपको कुछ अलग शिक्षा या सबक मिले।

1.जीवन हो योजनाओं से भरा : जीवन के किसी भी क्षेत्र में बेहतर रणनीति आपके जीवन को सफल बना सकती है और यदि कोई योजना या रणनीति नहीं है तो समझो जीवन एक अराजक भविष्य में चला जाएगा जिसके सफल होने की कोई गारंटी नहीं। भगवान श्रीकृष्ण के पास पांडवों को बचाने का कोई मास्टर प्लान नहीं होता तो पांडवों की कोई औकात नहीं थी कि वे कौरवों से किसी भी मामले में जीत जाते।

2.संगत और पंगत हो अच्‍छी : कहते हैं कि जैसी संगत वैसी पंगत और जैसी पंगत वैसा जीवन। आप लाख अच्छे हैं लेकिन यदि आपकी संगत बुरी है, तो आप बर्बाद हो जाएंगे। लेकिन यदि आप लाख बुरे हैं और आपकी संगत अच्छे लोगों से है और आप उनकी सुनते भी हैं, तो निश्‍चित ही आप आबाद हो जाएंगे। कौरवों के साथ शकुनि जैसे लोग थे जो पांडवों के साथ कृष्ण। शकुनि मामा जैसी आपने संगत पाल रखी है तो आपका दिमाग चलना बंद ही समझो।

3.अधूरा ज्ञान घातक : कहते हैं कि अधूरा ज्ञान सबसे खतरनाक होता है। इस बात का उदाहरण है अभिमन्यु। अभिमन्यु बहुत ही वीर और बहादुर योद्धा था लेकिन उसकी मृत्यु जिस परिस्थिति में हुई उसके बारे में सभी जानते हैं। मुसीबत के समय यह अधूरा ज्ञान किसी भी काम का नहीं रहता है। आप अपने ज्ञान में पारंगत बनें। किसी एक विषय में तो दक्षता हासिल होना ही चाहिए।

4.दोस्त और दुश्मन की पहचान करना सीखें : महाभारत में ऐसे कई मित्र थे जिन्होंने अपनी ही सेना के साथ विश्वासघात किया। ऐसे भी कई लोग थे, जो ऐनवक्त पर पाला बदलकर कौरवों या पांडवों के साथ चले गए। शल्य और युयुत्सु इसके उदाहरण हैं। इसीलिए कहते हैं कि कई बार दोस्त के भेष में दुश्मन हमारे साथ आ जाते हैं और हमसे कई तरह के राज लेते रहते हैं। कुछ ऐसे भी दोस्त होते हैं, जो दोनों तरफ होते हैं। जैसे कौरवों का साथ दे रहे भीष्म, द्रोण और विदुर ने अंतत: युद्ध में पांडवों का ही साथ दिया।

5.हथियार से ज्यादा घातक बोल वचन : महाभारत का युद्ध नहीं होता यदि कुछ लोग अपने वचनों पर संयम रख लेते। जैसे द्रौपदी यदि दुर्योधन को ‘अंधे का पुत्र भी अंधा’ नहीं कहती तो महाभारत नहीं होती। शिशुपाल और शकुनी हमेशा चुभने वाली बाते ही करते थे लेकिन उनका हश्र क्या हुआ यह सभी जानते हैं। सबक यह कि कुछ भी बोलने से पहले हमें यह सोच लेना चाहिए कि इसका आपके जीवन, परिवार या राष्ट्र पर क्या असर होगा।

6.जुए-सट्टे से दूर रहो : शकुनि ने पांडवों को फंसाने के लिए जुए का आयोजन किया था जिसके चलते पांडवों ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था। अंत में उन्होंने द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया था। यह बात सभी जानते हैं कि फिर क्या हुआ? अत: जुए, सट्टे, षड्यंत्र से हमेशा दूर रहो। ये चीजें मनुष्य का जीवन अंधकारमय बना देती हैं।

7. सदा सत्य के साथ रहो : कौरवों की सेना पांडवों की सेना से कहीं ज्यादा शक्तिशाली थी। एक से एक योद्धा और ज्ञानीजन कौरवों का साथ दे रहे थे। पांडवों की सेना में ऐसे वीर योद्धा नहीं थे। कहते हैं कि विजय उसकी नहीं होती जहां लोग ज्यादा हैं, ज्यादा धनवान हैं या बड़े पदाधिकारी हैं। विजय हमेशा उसकी होती है, जहां ईश्वर है और ईश्वर हमेशा वहीं है, जहां सत्य है इसलिए सत्य का साथ कभी न छोड़ें। अंतत: सत्य की ही जीत होती है। सत्य के लिए जो करना पड़े करो।

8. लड़ाई से डरने वाले मिट जाते हैं : जिंदगी एक उत्सव है, संघर्ष नहीं। लेकिन जीवन के कुछ मोर्चों पर व्यक्ति को लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। जो व्यक्ति लड़ना नहीं जानता, युद्ध उसी पर थोपा जाएगा या उसको सबसे पहले मारा जाएगा। महाभारत में पांडवों को यह बात श्रीकृष्ण ने अच्‍छे से सिखाई थी। पांडव अपने बंधु-बांधवों से लड़ना नहीं चाहते थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने समझाया कि जब किसी मसले का हल शांतिपूर्ण तरीके से नहीं होता, तो फिर युद्ध ही एकमात्र विकल्प बच जाता है। कायर लोग युद्ध से पीछे हटते हैं।

युद्ध भूमि पर पहुंचने के बाद भी अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहता था, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उससे कहा कि न कोई मरता है और न कोई मारता है। सभी निमित्त मात्र हैं। आत्मा अजर और अमर है… इसलिए मरने या मारने से क्या डरना?

9. खुद नहीं बदलोगे तो समाज तुम्हें बदल देगा : जीवन में हमेशा दानी, उदार और दयालु होने से काम नहीं चलता। महाभारत में जिस तरह से कर्ण की जिंदगी में उतार-चढ़ाव आए, उससे यही सीख मिलती है कि इस क्रूर दुनिया में अपना अस्तित्व बनाए रखना कितना मुश्किल होता है। इसलिए समय के हिसाब से बदलना जरूरी होता है, लेकिन वह बदलाव ही उचित है जिसमें सभी का हित हो। कर्ण ने खुद को बदलकर अपने जीवन के लक्ष्य तो हासिल कर लिया, लेकिन वे फिर भी महान नहीं बन सकें, क्योंकि उन्होंने अपनी शिक्षा का उपयोग समाज से बदला लेने की भावना से किया। बदले की भावना से किया गया कोई भी कार्य आपके समाज का हित नहीं कर सकता।

10. शिक्षा का सदुपयोग जरूरी : समाज ने एक महान योद्धा कर्ण को तिरस्कृत किया था, जो समाज को बहुत कुछ दे सकता था लेकिन समाज ने उसकी कद्र नहीं की, क्योंकि उसमें समाज को मिटाने की भावना थी। कर्ण के लिए शिक्षा का उद्देश्य समाज की सेवा करना नहीं था अपितु वो अपने सामर्थ्य को आधार बनाकर समाज से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। समाज और कर्ण दोनों को ही अपने-अपने द्वारा किए गए अपराध के लिए दंड मिला है और आज भी मिल रहा है। कर्ण यदि यह समझता कि समाज व्यक्तियों का एक जोड़ मात्र है जिसे हम लोगों ने ही बनाया है, तो संभवत: वह समाज को बदलने का प्रयास करता न कि समाज के प्रति घृणा करता।



11.अच्छे दोस्तों की कद्र करो : ईमानदार और बिना शर्त समर्थन देने वाले दोस्त भी आपका जीवन बदल सकते हैं। पांडवों के पास भगवान श्रीकृष्ण थे तो कौरवों के पास महान योद्धा कर्ण थे। इन दोनों ने ही दोनों पक्षों को बिना शर्त अपना पूरा साथ और सहयोग दिया था। यदि कर्ण को छल से नहीं मारा जाता तो कौरवों की जीत तय थी। पांडवों ने हमेशा श्रीकृष्ण की बातों को ध्यान से सुना और उस पर अमल भी किया लेकिन दुर्योधन ने कर्ण को सिर्फ एक योद्धा समझकर उसका पांडवों की सेना के खिलाफ इस्तेमाल किया। यदि दुर्योधन कर्ण की बात मानकर कर्ण को घटोत्कच को मारने के लिए दबाव नहीं डालता, तो इंद्र द्वारा दिया गया जो अमोघ अस्त्र कर्ण के पास था उससे अर्जुन मारा जाता।

12. भावुकता कमजोरी है : धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को लेकर जरूरत से ज्यादा ही भावुक और आसक्त थे। यही कारण रहा कि उनका एक भी पुत्र उनके वश में नहीं रहा। वे पुत्रमोह में भी अंधे थे। इसी तरह महाभारत में हमें ऐसे कुछ पात्र मिलते हैं जो अपनी भावुकता के कारण मूर्ख ही सिद्ध होते हैं। जरूरत से ज्यादा भावुकता कई बार इंसान को कमजोर बना देती है और वो सही-गलत का फर्क नहीं पहचान पाता। कुछ ऐसा ही हुआ महाभारत में धृतराष्ट्र के साथ, जो अपने पुत्रमोह में आकर सही-गलत का फर्क भूल गए।

13. शिक्षा और योग्यता के लिए जुनूनी बनो : व्यक्ति के जीवन में उसके द्वारा हासिल शिक्षा और उसकी कार्य योग्यता ही काम आती है। दोनों के प्रति एकलव्य जैसा जुनून होना चाहिए तभी वह हासिल होती है। अगर आप अपने काम के प्रति जुनूनी हैं तो कोई भी बाधा आपका रास्ता नहीं रोक सकती।

14. कर्मवान बनो : इंसान की जिंदगी जन्म और मौत के बीच की कड़ी-भर है। यह जिंदगी बहुत छोटी है। कब दिन गुजर जाएंगे, आपको पता भी नहीं चलेगा इसलिए प्रत्येक दिन का भरपूर उपयोग करना चा‍हिए। कुछ ऐसे भी कर्म करना चाहिए, जो आपके अगले जीवन की तैयारी के हों। ज्यादा से ज्यादा कार्य करो, घर और कार्यालय के अलवा भी ऐसे कार्य करो जिससे आपकी सांतानें आपको याद रखें। गीता यही संदेश देती है कि हर पर ऐसा कार्य कर जो तेरे जीवन को सुंदर बनाए।

15. अहंकार और घमंड होता है पतन का कारण : अपनी अच्छी स्थिति, बैंक-बैलेंस, संपदा, सुंदर रूप और विद्वता का कभी अहंकार मत कीजिए। समय बड़ा बलवान है। धनी, ज्ञानी, शक्तिशाली पांडवों ने वनवास भोगा और अतिसुंदर द्रौपदी भी उनके साथ वनों में भटकती रही। समय के खेल निराले हैं। जिस अंबा का जीवन भीष्म के कारण बर्बाद हो गया था उसने शिखंडी के रूप में जन्म लेकर भीष्म से बदला लिया था। महाभारत में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे यह प्रेरणा मिलती है कि घमंड को पतन का कारण बनने में देर नहीं लगती है।

16. कोई भी संपत्ति किसी की भी नहीं है : अत्यधिक लालच इंसान की जिंदगी को नर्क बना देता है। जो आपका नहीं है उसे अनीतिपूर्वक लेने, हड़पने का प्रयास न करें। आज नहीं तो कल, उसका दंड अवश्य मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आज जो तेरा है कल (बीता हुआ कल) किसी और का था और कल (आने वाला कल) किसी और का हो जाएगा। अत: तू संपत्ति और वस्तुओं से आसक्ति मत पाल। यह तेरी मृत्यु के बाद यहीं रखे रह जाएंगे। अर्जित करना है तो परिवार का प्रेम और अपनत्व अर्जित कर, जो हमेशा तेरे साथ रहेगा।

17. ज्ञान का हो सही क्रियान्वयन : शिष्य या पुत्र को ज्ञान देना माता-पिता व गुरु का कर्तव्य है, लेकिन सिर्फ ज्ञान से कुछ भी हासिल नहीं होता। बिना विवेक और सद्बुद्धि के ज्ञान अकर्म या विनाश का कारण ही बनता है इसलिए ज्ञान के साथ विवेक और अच्छे संस्कार देने भी जरूरी हैं। हमने ऐसे कई व्यक्ति देखें हैं जो है तो बड़े ज्ञानी लेकिन व्यक्तित्व से दब्बू या खब्बू हैं या किसी जंगल में धूनी रमाकर बैठे हैं। उनके ज्ञान से न तो परिवार का हित हो रहा है और न समाज का।

18. दंड का डर जरूरी : न्याय व्यवस्था वही कायम रख सकता है, जो दंड को सही रूप में लागू करने की क्षमता रखता हो। यह चिंतन घातक है कि ‘अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं।’.. दुनियाभर की जेलों से इसके उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं कि जिन अपराधियों को सुधारने की दृष्टि से पुनर्वास कार्यक्रम चलाए गए, उन्होंने समाज में जाकर फिर से अपराध को अंजाम दिया है। अपराधी को हर हाल में दंड मिलना ही चाहिए। यदि उसे दंड नहीं मिलेगा, तो समाज में और भी अपराधी पैदा होंगे और फिर इस तरह संपूर्ण समाज ही अपराधियों का समाज बन जाएगा। युधिष्ठिर के अहिंसा में उनके विश्वास को देखते हुए युद्ध के बाद भीष्म को उन्हें उपदेश देना पड़ा कि राजधर्म में हमेशा दंड की जरूरत होती है, क्योंकि प्रत्येक समाज में अपराधी तो होंगे ही। दंड न देना सबसे बड़ा अपराध होता है।

19. न्याय की रक्षा जरूरी : न्याय हमेशा उन लोगों के साथ होता है, जो शक्तिशाली हैं या जो न्याय पाने के लिए प्राणपन से उत्सुक हैं। जिन्होंने अपने लिए न्याय मांगा है उनके साथ ईश्वर ने न्याय किया भी है। मांगोगे नहीं तो मिलेगा भी नहीं, यह प्रकृति का नियम है। गुरु द्रोणाचार्य ने कर्ण और एकलव्य के साथ जरूर अन्याय किया था लेकिन आज दुनिया अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं मानती, क्योंकि कर्ण और एकलव्य ने हमेशा न्याय की मांग की और अंत में आज दुनिया उन्हें श्रेष्‍ठ धनुर्धर मानती है। महाभारत हमें सिखाती है कि न्याय की रक्षा करना कितना जरूरी है। लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि न्याय सिर्फ शक्तिशाली लोगों के साथ ही है।

20. छिपे हुए को जानने का ज्ञान जरूरी : यह जगत या व्यक्ति जैसा है, वैसा कभी दिखाई नहीं देता अर्थात लोग जैसे दिखते हैं, वैसे होते नहीं चाहे वह कोई भी हो। महाभारत का हर पात्र ऐसा ही है, रहस्यमयी। छिपे हुए को जानना ही व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिए, क्योंकि ज्ञान ही व्यक्ति को बचाता है। भगवान श्रीकृष्ण के ऐसे कई योद्धा थे जो छिपे हुए सत्य को जानते थे।

21. सफर करने में होती है बरकत : एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना या एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर रहने से लाभ ही मिलता है। पांडवों को हस्तिनापुर छोड़कर दो बार जंगल में रहना पड़ा और अंत में उनको जब खांडवप्रस्थ मिला तो वे वहां चले गए। इसी तरह भगवान श्रीकृष्ण को भी कई बार मथुरा को छोड़कर जाना पड़ा और अंत में वे द्वारिका में बस गए थे। कई बार लोगों को व्यापार या नौकरी के लिए दूसरे शहर या देश में जाना होता है।

22. गोपनीयता और संयम जरूरी : जीवन हो या युद्ध, सभी जगह गोपनीयता का महत्व है। यदि आप भावना में बहकर किसी को अपने जीवन के राज बताते हैं या किसी व्यक्ति या समाज विशेष पर क्रोध या कटाक्ष करते हैं, तो आप कमजोर माने जाएंगे। महाभारत में ऐसे कई मौके आए जबकि नायकों ने अपने राज ऐसे व्यक्ति के समक्ष खोल दिए, जो राज जानने ही आया था। जिसके चलते ऐसे लोगों को मुंह की खानी पड़ी। दुर्योधन, भीष्म, बर्बरिक ऐसे उदाहण है जिन्होंने अपनी कमजोरी और शक्ति का राज खोल दिया था।

23.चिंता, भय और अशांति है मृत्यु का द्वार : किसी भी प्रकार की चिंता करना, मन को अशांत रखना और व्यर्थ के भय को पालते रहने से मृत्यु आसपास ही मंडराने लगती है। मौत तो सभी को आनी है फिर चिंता किस बात की। कोई पहले मरेगा और कोई बाद में। चिंता का मुख्य कारण मोह है। जेलखान, दावाखाना या पागलखाना वह व्यक्ति जाता है जिसने धर्मसम्मत या संयमित जीवन नहीं जिया। बहुत महात्वाकांशी है या जिसने धन और शक्ति के आधार पर रिश्ते बना रखे हैं या जिसे अपनी संपत्ति की सुरक्षा की चिंता है। महाभारत को पढ़ने से हमें यही शिक्षा मिलती है कि चिंत्तामुक्त जीवन सबसे बड़ी दौलत है।

24. इन्द्रिय संयम जरूरी : इन्द्रियां कभी तृप्त नहीं होतीं। जो इन्द्रियों के वश में है उसका पतन निश्चित है। बहुत से लोग आजकल किसी न किसी प्रकार की आदत या नशे के आदी होते है ऐसे लोगों का धीरे-धीरे क्षरण होता जाता है। इन्द्रिय संयम आता है संकल्प से। महाभारत का हर पात्र संकल्प से बंधा हुआ है। शक्ति का संचय इन्द्रियों को वश में करने से ही संभव हो पाता है।

25.राजा या योद्धा को नहीं करना चाहिए परिणाम की चिंता : कहते हैं कि जो योद्ध या राज युद्ध के परिणाम की चिंता करता है वह अपने जीवन और राज्य को खतरे में डाल देता है। परिणाम की चिंता करने वाला कभी भी साहसपूर्वक न तो निर्णय ले पाता है और न ही युद्ध कर पाता है। जीवन के किसी पर मोड़ पर हमारे निर्णय ही हमारा भविष्य तय करते हैं। एक बार निर्णय ले लेने के बाद फिर बदलने का अर्थ यह है कि आपने अच्छे से सोचकर निर्णय नहीं लिया या आपमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है।

रविवार, 10 जनवरी 2021

भगवान विष्णु का अंतिम अवतार - कल्कि अवतार

कल्कि अवतार का वर्णन

युधिष्ठिर द्वारा मार्कण्डेय से पूछने पर मार्कण्डेय युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव के बारे में युधिष्ठिर को बताते हैं और अब कल्कि अवतार का वर्णन के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 190 में बताया गया है।

मार्कण्डेय का संवाद

मार्कण्डेय कहते हैं- युधिष्ठिर युगान्तकाल आने पर सब ओर आग भी जल उठेगी। उस समय पथियों को मांगने पर कहीं अन्न, जल या ठहरने के लिये स्थान नहीं मिलेगा। वे सब ओर से कोरा जवाब पाकर निराश हो सड़कों पर ही सो रहेंगे। युगान्तकाल उपस्थित होने पर बिजली की कड़क के समान कड़वी बोली बोलने वाले कौवे, हाथी, शकुन, पशु और पक्षी आदि बड़ी कठोर वाणी बोलेंगे। उस समय के मनुष्य अपने मित्रों, सम्बन्धियों, सेवकों तथा कुटुम्बीजनों की भी अकारण त्याग देंगे। प्रायः लोग स्वदेश छोड़कर दूसरे देशों, दिशाओं, नगरों और गांवों का आश्रय लेंगे और हा तात! हा पुत्र! इत्यादि रूप से अत्यन्त दुःखद वाणी में एक-दूसरे को पुकारते हुए इस पृथ्वी पर विचरेंगे। युगान्तकाल में संसारकी यही दशा होगी। उस समय एक ही साथ समस्त लोकों का भयंकर संहार होगा। तदन्तर कालान्तर में सत्ययुग का आरम्भ होगा और फिर क्रमशः ब्राह्मण आदि वर्ण प्रकट होकर अपने प्रभाव का विस्तार करेंगे। उस समय लोक के अभ्युदय के लिये पुनः अनायास दैव अनुकूल होगा।

 
PC puneetbarnala/Instagram

कल्कि अवतार का वर्णन

जब सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति एक साथ पुष्य नक्षत्र एवं तदनुरूप एक राशि कर्क में पदार्पण करेंगे, तब सत्ययुग का प्रारम्भ होगा। उस समय मेघ समय पर वर्षा करेगा। नक्षत्र शुभ एवं तेजस्वी हो जायेंगे। ग्रह प्रदक्षिणाभाव से अनुकूल गति का आश्रय ले अपने पथ पर अग्रसर होंगे। उस समय सबका मंगल होगा। देश में सुकाल आ जायगा। आरोग्य का विस्तार होगा तथा रोग-व्याधिका नाम भी नहीं रहेगा। राजन! युगान्त के समय काल की प्रेरणा से सम्भल नामक ग्राम में किसी ब्राह्मण के मंगलमय गृह में एक महान शक्तिशाली बालक प्रकट होगा, जिसका नाम होगा विष्णुयशा कल्कि। वह महान बुद्धि एवं पराक्रम से सम्पन्न महात्मा, सदाचारी तथा प्रजावर्ग का हितैषी होगा। मन के द्वारा चिन्तन करते ही उसके पास इच्छानुसार वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और कवच उपस्थित हो जायंगे। वह धर्म-विजयी चक्रवर्ती राजा होगा। वह उदारबुद्धि, तेजस्वी ब्राह्मण, दुःख से व्याप्त हुए इस जगत को आनन्द प्रदान करेगा। कलियुग का अन्त करने के लिये ही उसका प्रादुर्भाव होगा। वही सम्पूर्ण कलियुग का संहार करके नूतन सत्ययुग का प्रवर्तक होगा। वह ब्राह्मणों से घिरा हुआ सर्वत्र विचरेगा और भूमण्डल में सर्वत्र फैले हुए नीच स्वभाव वाले सम्पूर्ण म्लेच्छों का संहार कर ड़ालेगा।

1. कलियुग में ऐसे लोगों का राज्य होगा, जो दोनों ओर से शोषण करेंगे। बोलेंगे कुछ और करेंगे कुछ। मन में कुछ और कर्म में कुछ। ऐसे ही लोगों का राज्य होगा। इसी प्रकार कलियुग में ऐसे लोग रहेंगे, जो बड़े ज्ञानी और ध्यानी कहलाएंगे। वे ज्ञान की चर्चा तो करेंगे, लेकिन उनके आचरण राक्षसी होंगे। बड़े पंडित और विद्वान कहलाएंगे किंतु वे यही देखते रहेंगे कि कौन-सा मनुष्य मरे और हमारे नाम से संपत्ति या पद कर जाए।'
 

 

2.कलियुग का मनुष्य शिशुपाल हो जाएगा। कलियुग में बालकों के लिए ममता के कारण इतना करेगा कि उन्हें अपने विकास का अवसर ही नहीं मिलेगा। मोह-माया में ही घर बर्बाद हो जाएगा। किसी का बेटा घर छोड़कर साधु बनेगा तो हजारों व्यक्ति दर्शन करेंगे, किंतु यदि अपना बेटा साधु बनता होगा तो रोएंगे कि मेरे बेटे का क्या होगा? इतनी सारी ममता होगी कि उसे मोह-माया और परिवार में ही बांधकर रखेंगे और उसका जीवन वहीं खत्म हो जाएगा। अंत में बेचारा अनाथ होकर मरेगा।


3.कलियुग में धनाढ्‍य लोग लड़के-लड़की के विवाह में, मकान के उत्सव में, छोटे-बड़े उत्सवों में तो लाखों रुपए खर्च कर देंगे, परंतु  यदि कोई भूखा-प्यासा होगा तो यह नहीं देखेंगे कि उसका पेट भरा है या नहीं। उनका अपना ही सगा भूख से मर जाएगा और वे देखते रहेंगे। दूसरी और मौज, मदिरा, मांस-भक्षण, सुंदरता और व्यसन में पैसे खर्च कर देंगे किंतु किसी के दो आंसू पोंछने में उनकी रुचि न होगी।
 

 

4.कलियुग में मानव का मन नीचे गिरेगा, उसका जीवन पतित होगा। यह पतित धन की शिलाओं से नहीं रुकेगा, न ही सत्ता के वृक्षों से रुकेगा। किंतु हरि नाम के एक छोटे से पौधे से, हरि कीर्तन के एक छोटे से पौधे से मनुष्य जीवन का पतन होना रुक जाएगा।

बुधवार, 6 जनवरी 2021

भगवान शिव और तांडव नृत्य

तांडव नृत्य अर्थात सृष्टि के संहार का नृत्य ऐसा नृत्य जो सृष्टि की लयात्मक व्यवस्था को अव्यवस्थित कर उसे प्रलय में बदल देता है। तांडव नृत्य अक्सर भगवान शिव से ही जोड़ा जाता रहा है, कहा जाता है कि जब सृष्टि के संहार की बारी आती है तो शिव जाग्रत हो उठते हैं और वो महाकाली के साथ विध्वंस का ऐसा नृत्य करते हैं जिससे सृष्टि का संहार हो जाता है। परंतु क्या तांडव नृत्य सिर्फ सृष्टि के संहार से ही जुड़ा है या इसका कोई और भी अर्थ है। तांडव का अर्थ क्या है तांडव शब्द तंदुल शब्द से बना है जिसका अर्थ है उछलना। संपूर्ण उर्जा के साथ शरीर को उछालने की क्रिया को तांडव कहते हैं । इस नृत्य में वीर और वीभत्स रस का प्रयोग किया जाता है । आम तौर पर सृष्टि में दो प्रकार की स्थिति होती है । लयात्मक स्थिति और प्रलयात्मक स्थिति।

परम पुरुष और उसकी प्रकृति हमारी सृष्टि प्रकृति और पुरुष से मिल कर बनी है। पुरुष को कई ईश्वरीय सत्ताओं से जोड़ा जाता रहा है। भगवान सदाशिव ही परम पुरुष हैं और माता पार्वती उनकी प्रकृति हैं जिनके साथ मिलकर भगवान शिव सृष्टि की रचना , पालन और संहार करते हैं।

Picture Credit The_Lion_Army/Instagram

परम पुरुष का तांडव और प्रकृति का लास्य नृत्य

सृष्टि दो प्रकार के नृत्यों से संचालित होती हैं, जब प्रकृति अपने लय में होती हैं तो माता पार्वती के पास सृष्टि के संचालन का दायित्व होता है। लय में जब मां पार्वती या प्रकृति होती हैं तो से लास्य नृत्य होता है । परंतु जब लयात्मक प्रकृति में कोई व्यवधान होता है तो परम पुरुष का हस्तक्षेप होता है और प्रकृति लास्य नृत्य समाप्त कर देती हैं और परमु पुरुष शिव का प्रलयात्मक नृत्य शुरु होता है।

भगवान शिव के तांडव तांडव नृत्य का शास्त्रो में वर्णन देखा जा सकता है। भगवान शिव जब कभी भी विनाश का कार्य शुरु करते हैं उसके बाद वो तांडव नृत्य जरुर करते हैं। दरअसल अगर सृजन एक लीला कार्य है तो प्रलय भी भगवान की एक लीला ही है, और जब लीला अर्थात खेल है यह सारा कार्य तो इसमें संगीत और नृत्य भी होगा। भगवान शिव संहार करने के बाद क्रोध को नियंत्रित नहीं कर पाते और उनका पूरा शरीर अतिरिक्त उर्जा से उछलने लगता है। उर्जा का यही रूपांतरण तांडव कहलाता है।

शिव ने कब कब तांडव नृत्य किया शास्त्रों के मुताबिक शिव हमेशा प्रलय के बाद तांडव करते हैं।

शास्त्रो में पहले तांडव नृत्य का वर्णन- शास्त्रों के अनुसार जब उनकी पहली पत्नी माता सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में आत्मदाह कर लिया था तब भगवान शिव ने अपनी पत्नी, माता सती का शव अपने कंधे पर रख कर सृष्टि का विनाश करने के लिए तांडव नृत्य शुरु कर दिया था। इस नृत्य को खत्म कराने के लिए और भगवान शिव का माता सती के पार्थिव शरीर के प्रति मोह भंग कराने के लिए भगवान विष्णु ने अपने चक्र से माता सती के शरीर के 51 टुकड़े किये थे। जहां जहां माता सती के अंग गिरे वहां वहां आज भी शक्तिपीठे हैं।

Har Har Mahadev 🙏💙🕉💛🐚🌈🌷🔆❤️🕉🌀📿🌈💖
.
.
Make Sanatan Great Again 🚩🕉️

शनिवार, 2 जनवरी 2021

5 intriguing questions of life

The lore of Lord Ram and Ravan is as old as time. We know about its major lessons and present them in the most simplistic way for common understanding. The virtue of Sita, the valour of Ram, the deceit of Ravan and the end of it all – light wins over darkness, goodness over evil.

But each page of the fascinating tale as encapsulated in the several versions of Ramayana is engaging and an enriching insight into various facets of life. The epic brings godliness closer to human experience and allows for a person to feel that he too can live a righteous life in a modern context.

What really endures are underlying truths of existence which are as relevant now as they were then.

As per Ram Charit Manas, it so happened that once during their exile into the forests, Sita was away to pick some flowers and berries. Finding Lord Ram alone and relaxed, Lakshman, his devoted younger brother, approaches him with humility and curiosity.

Knowing him to be divinity in human form, he asks about these persisting concepts of life that have intrigued mankind since the beginning of existence.

In the conversation that follows, light is shed on 5 most pertinent realities:

Lakshmana: What is Maya (Illusion)?

Lord Ram: The feeling of “I” and “mine” and “you” and “yours” is Maya (Illusion), which holds sway over all created beings. Whatever is perceived by the senses and that which lies within the reach of the mind, know it all to be Maya.

Lakshmana: What is Gyan (Knowledge / Spiritual Wisdom)?

Lord Ram: Maya has two divisions, viz., Gyan (knowledge) and ignorance. Ignorance is vile and extremely painful, and has cast the ego into the sink of worldly existence. The other Gyan (knowledge), which brings forth the creation and which holds sway over the three Gunas (Sattva, Rajas and Tamas) is directed by the Lord and has no strength of its own. Spiritual wisdom is that which is free from all blemishes in the shape of pride etc., and which sees the Supreme Spirit equally in all. Gyan (spiritual wisdom) comes of the practice of Yoga (concentration of mind); and wisdom is the bestower of liberation, so declare the Vedas.

Lakshmana: What is Vairagya (Detachment /Dispassion)?

Lord Ram: He alone, dear brother, should be called a man of supreme dispassion, who has spurned all supernatural powers as well as the three Gunas (of which the universe is composed) as if of no more account than a blade of grass. Dispassion is a result of the practice of virtue.

Lakshmana: What is Bhakti (Devotion)?

Lord Ram: That which melts my heart quickly is devotion, which is the delight of my devotees. It stands by itself and requires no other prop; whereas Gyan (knowledge of God in His absolute formless aspect) and Vigyana (Science / knowledge of the qualified aspect of God, both with and without form) depend on it. Devotion is incomparable and the very root of bliss; it can be acquired only by the favour of saint. I now proceed to tell you at some length the means of acquiring devotion, an easy path by which men find me.

In the first place a man should cultivate excessive devotion to the feet of the Brahmanas and secondly he should remain engaged in his own duty according to the lines laid down by the Vedas. This induces an aversion to the pleasures of sense and dispassion in its turn engenders a love for my cult (the cult of devotion). This will bring steadfastness in the nine forms of devotion such as Sravana (hearing of the Lord’s praises etc.,) and the mind will develop an excessive fondness for my pastimes. Again, one should be extremely devoted to the lotus feet of saints and should be persistent in the practice of adoration through mind, speech and action. He should recognize me as his preceptor, father, mother, kinsman, lord, deity and all and should be steadfast in my service. A thrill runs through his body as he sings my praises; his voice gets choked and his eyes flow with tears; he is free from lust and other vices, pride and hypocrisy. I am ever at the beck and call of such a devotee.

Nay, I ever repose in the lotus heart of those who depend on me in thought, word and deed and who worship me.

Lakshmana: What is the difference between a Jiva (human/individual soul) and God?

Lord Ram:  That alone deserves to be called a Jiva (individual soul), which knows not Maya nor God nor one’s own self. And Shiva (God) is He who awards bondage and liberation, transcends all and is the controller of Maya.
.
.
।। Jai Shri Ram ।। 🚩🕉️

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

वास्तव में सनातन धर्म में कितने देवी देवता हैं?

अक्सर हिन्दू धर्म पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि यह बहुदेववादी धर्म है, लेकिन यह सरासर गलत है। हिन्दू धर्म में सर्वोच्च शक्ति 'ब्रह्म' (भगवान ब्रह्मा नही) को माना गया है।

प्राचीनकाल में 3 महत्वपूर्ण देव थे जिन्हें 'त्रिदेव' कहा गया। ये 3 देव ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। हिन्दू धर्म के इस सत्य या दर्शन को सभी धर्मों ने सहर्ष स्वीकार किया। भाषा और स्थान के अनुसार इनकी प्राचीनकालीन संस्कृति और सभ्यता में भिन्न-भिन्न नाम थे लेकिन इनकी कहानियां और इनके कार्य एक जैसे बताए गए हैं।

हिन्दू धर्म में त्रिदेव : शिवपुराण के अनुसार उक्त त्रिदेव के जनक हैं सदाशिव और दुर्गा। सदाशिव और दुर्गा के जनक हैं परब्रह्म परमेश्वर। उक्त त्रिदेव की पत्नियां हैं- सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती। 


1. ब्रह्मा : ब्रह्मा को मनुष्य, पशु-पक्षी आदि जीव जगत की सृष्टि करने वाला माना गया है। वे सभी के पिता हैं। उनके 10 पुत्रों से ही मानव सृष्टि का विकास हुआ। माता सरस्वती भगवान ब्रह्मा की पत्नी है।

 

2. विष्णु : ब्रह्मा के काल में हुए भगवान विष्णु को पालनहार माना जाता है। भगवान विष्णु  का माँ लक्ष्मी से विवाह हुआ था। हिन्दू धर्म के अनुसार विष्णु परमेश्वर के 3 मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। वो जगत के पालन कर्ता है।

 

3. शिव : भगवान शिव को त्रिदेवों में सर्वोच्च माना गया है। वे देवों के देव महादेव हैं। सबसे पहले उनका विवाह सती से हुआ। सती के यज्ञ में कूदकर दाह करने के बाद उनका विवाह पार्वती से हुआ। पार्वती ही पिछले जन्म में सती थीं। माता पार्वती ओर भगवान शिव के  2 पुत्र है- गणेश और कार्तिकेय । इसके अलावा शिव के सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा नाम के पुत्र तथा 1 पुत्री भी थी। सती के ही 10 रूप 10 महाविद्या के नाम से विख्यात हुए और उन्हीं को 9 दुर्गा कहा गया है। आदिशक्ति मां दुर्गा और पार्वती अलग-अलग हैं। दुर्गा सर्वोच्च शक्ति हैं।

           Picture Credit artiswell/instagram

उल्लेखनीय है कि राम, कृष्ण और बुद्ध आदि देवता नहीं, भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से हैं। उसी तरह भगवान शिव के 28 अवतार हुए हैं, जैसे हनुमानजी, शम्भू, धूम्रवान, महाकाल, पिंगल, कपाली, दुर्वासा, महेश, चंड, वृषभ, पिप्पलाद, बैद्यनाथ, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य आदि।

ऐसा माना जाता है कि प्रारंभिक काल में ये तीनों देवता धरती पर ही भिन्न-भिन्न क्षेत्र में रहते थे। हिमालय के दक्षिण में भगवान विष्णु क्षीरसागर नामक समुद्र में और हिमालय के उत्तर में इरावत नामक प्रदेश में भगवान ब्रह्मा रहते थे जबकि भगवान शिव स्वयं हिमालय पर रहते थे। 

प्राचीनकाल में हिमालय को स्वर्ग, हिमालय से नीचे धरती और रेगिस्तानी क्षेत्रों को पाताल लोक कहा जाता था। इसी तरह हिमालय के ऊपर स्वर्ग और नीचे पाताल और नर्क की स्थिति बताई गई है।

उक्त काल में धरती पर आया-जाया करते थे देवी और देवता। उनका मनुष्यों से गहरा संपर्क था।

ये 33 देवता हैं- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं।

 

12 आदित्य : 1. अंशुमान, 2. अर्यमन, 3. इन्द्र, 4. त्वष्टा, 5. धातु, 6. पर्जन्य, 7. पूषा, 8. भग, 9. मित्र, 10. वरुण, 11. विवस्वान और 12. विष्णु।

 

8 वसु : 1. आप, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धर, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्युष और 8. प्रभाष।

 

11 रुद्र : 1. शम्भू, 2. पिनाकी, 3. गिरीश, 4. स्थाणु, 5. भर्ग, 6. भव, 7. सदाशिव, 8. शिव, 9. हर, 10. शर्व और 11. कपाली।

 

अन्य पुराणों में इनके नाम अलग हैं- मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव और धृत-ध्वज ये 11 रुद्र देव हैं। इनके पुराणों में अलग-अलग नाम मिलते हैं।

 

2 अश्विनी कुमार : 1. नासत्य और 2. दस्त्र। अश्विनीकुमार त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के 2 पुत्र हैं। ये आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं।

 

अन्य देवी और देवता : इसके अलावा 49 मरुदगण, अर्यमा, नाग, हनुमान, भैरव, भैरवी, गणेश, कार्तिकेय, पवन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, विश्‍वदेव, चित्रगुप्त, यम, यमी, शनि, प्रजापति, सोम, त्वष्टा, ऋभु:, द्यौ:, पृथ्वी, सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, पर्जन्य, धेनु, पूषा, आप: सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पिंगला आदि।

ऐसी मान्यता है कि हिंदू देवी-देवताओं की संख्या 33 या 36 करोड़ है। वेदों में देवताओं की संख्या 33 कोटी बताई गई है। कोटी का अर्थ प्रकार होता है जिसे लोगों ने या बताने वाले पंडित ने 33 करोड़ कर दिया। हालांकि इस पर शोध किए जाने की जरूरत है।

देवताओं की शक्ति और सामर्थ के बारे में वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। हालांकि प्रमुख 33 देवताओं के अलावा भी अन्य कई देवदूत हैं जिनके अलग-अलग कार्य हैं और जो मानव जीवन को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं। इनमें से कई ऐसे देवता हैं ‍जो आधे पशु और आधे मानव रूप में हैं। आधे सर्प और आधे मानव रूप में हैं।

माना जाता है कि सभी देवी और देवता धरती पर अपनी शक्ति से कहीं भी आया-जाया करते थे। यह भी मान्यता है कि संभवत: मानवों ने इन्हें प्रत्यक्ष रूप से देखा है और इन्हें देखकर ही इनके बारे में लिखा है।

तीन स्थान और 33 देवता : त्रिलोक्य के देवताओं के तीन स्थान नियुक्त है:- 1.पृथ्वी 2.वायु और 3.आकाश। प्रमुख 33 देवता ये हैं:- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इंद्र व प्रजापति को मिलाकर कुल तैतीस देवी और देवता होते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा है, 12 आदित्यों में से एक विष्णु है और 11 रुद्रों में से एक शिव है। कुछ विद्वान इंद्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विन कुमारों को रखते हैं। उक्त सभी देवताओं को परमेश्वर ने अलग-अलग कार्य सौंप रखे हैं।

8 वसु : आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभाष।

10 आदित्य : अंशुमान, अर्यमन, इंद्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, वैवस्वत और विष्णु।

11 रुद्र : मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव और धृत-ध्वज ये 11 रुद्र देव हैं। इनके पुराणों में अलग अलग नाम मिलते हैं।

12 अश्विनी कुमार : अश्विनीकुमार त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र हैं। ये आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं।

क्षेत्रवार देवताओं के नाम:-

1.आकाश के देवता अर्थात स्व: (स्वर्ग):- सूर्य, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, आदिंत्यगण, अश्विनद्वय आदि।

2.अंतरिक्ष के देवता अर्थात भूव: (अंतरिक्ष):- पर्जन्य, वायु, इंद्र, मरुत, रुद्र, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य।

3.पृथ्वी के देवता अर्थात भू: (धरती):- पृथ्वी, उषा, अग्नि, सोम, बृहस्पति, नद‍ियां आदि।

अज एकपाद' और 'अहितर्बुध्न्य' दोनों आधे पशु और आधे मानवरूप हैं। मरुतों की माता की 'चितकबरी गाय' है। एक इन्द्र की 'वृषभ' (बैल) के समान था। राजा बली भी इंद्र बन चुके हैं और रावण पुत्र मेघनाद ने भी इंद्रपद हासिल कर लिया था। इसके अलावा विश्वदेव, आर्यमन, तथा 'ऋत' नाम के भी देवता हैं। अर्यमनन पित्रों के देवता हैं, तो ऋत नैतिक व्यवस्था को कायम रखने वाले देवता।

वेदों में हमें बहुत से देवताओं की स्तुति और प्रार्थना के मंत्र मिलते हैं। इनमें मुख्य-मुख्य देवता ये हैं: अगले पन्ने पर..

प्राकृतिक शक्तियां,



प्राकृतिक शक्तियां : अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्र, मरुत, त्वष्टा, सोम, ऋभुः, द्यौः, पृथ्वी, सूर्य (आदित्य), बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, पर्जन्य, धेनु, पूषा, आपः, सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु, त्वष्टा, श्रद्धा आदि।

दिव्य शक्तियां : ब्रह्मा (प्रजापति), विष्णु (नारायण), शिव (रुद्र), अश्विनीकुमार, 12 आदित्य (इसमें से एक विष्णु है), यम, पितृ (अर्यमा), मृत्यु, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति, कश्यप, विश्वकर्मा, गायत्री, सावित्री, सती, सरस्वती, लक्ष्मी, आत्मा, बृहस्पति, शुक्राचार्य आदि।

गायत्री मंत्र और 24 देवता...


गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों को 24 देवताओं संबंधित माना गया है। इस महामंत्र को 24 देवताओं का एवं संघ, समुच्चय या संयुक्त परिवार कह सकते हैं। इस मंत्र के जाप से 24 देवता जाग्रत हो उठते हैं।

गायत्री के 24 अक्षरों में विद्यमान 24 देवताओं के नाम:-
1. अग्नि
2. प्रजापति
3. चन्द्रमा
4. ईशान
5. सविता
6. आदित्य
7. बृहस्पति
8. मित्रावरुण
9. भग
10. अर्यमा
11. गणेश
12. त्वष्टा
13. पूषा
14. इन्द्राग्नि
15. वायु
16. वामदेव
17. मैत्रावरूण
18. विश्वेदेवा
19. मातृक
20. विष्णु
21. वसुगण
22. रूद्रगण
23. कुबेर
24. अश्विनीकुमार।

गायत्री ब्रह्मकल्प में देवताओं के नामों का उल्लेख इस तरह से किया गया है:-
1-अग्नि, 2-वायु, 3-सूर्य, 4-कुबेर, 5-यम, 6-वरुण, 7-बृहस्पति, 8-पर्जन्य, 9-इन्द्र, 10-गन्धर्व, 11-प्रोष्ठ, 12-मित्रावरूण, 13-त्वष्टा, 14-वासव, 15-मरूत, 16-सोम, 17-अंगिरा, 18-विश्वेदेवा, 19-अश्विनीकुमार, 20-पूषा, 21-रूद्र, 22-विद्युत, 23-ब्रह्म, 24-अदिति ।

कौन कौन से प्रमुख देवता, जिनकी पूजा होती है..


33 देवी और देवताओं के कुल के अन्य बहुत से देवी-देवता हैं: सभी की संख्या मिलकर भी 33 करोड़ नहीं होती, लाख भी नहीं होती और हजार भी नहीं। वर्तमान में इनकी पूजा होती है।

शिव-सती : सती ही पार्वती है और वहीं दुर्गा है। उसी के नौ रूप हैं। वही दस महाविद्या है। शिव ही रुद्र हैं और हनुमानजी जैसे उनके कई अंशावतार भी हैं।

विष्णु-लक्ष्मी : विष्णु के 24 अवतार हैं। वहीं राम है और वही कृष्ण भी। बुद्ध भी वही है और नर-नारायण भी वही है। विष्णु जिस शेषनाग पर सोते हैं वही नाग देवता भिन्न-भिन्न रूपों में अवतार लेते हैं। लक्ष्मण और बलराम उन्हीं के अवतार हैं।

ब्रह्मा-सरस्वती : ब्रह्मा को प्रजापति कहा जाता है। उनके मानसपुत्रों के पुत्रों में कश्यप ऋषि हुए जिनकी कई पत्नियां थी। उन्हीं से इस धरती पर पशु, पक्षी और नर-वानर आदि प्रजातियों का जन्म हुआ। चूंकि वह हमारे जन्मदाता हैं इसलिए ब्रह्मा को प्रजापिता भी कहा जाता है।

।। जय सनातन ।। 🚩🕉️